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यूपीएससी प्रिपरेशन टिप्स..

सिविल सेवा परीक्षा में सन् 1911 से Aptitude Test की शुरुआत की गई थी और तब से लेकर अभी तक यह लगातार विवाद का विषय बना रहा. चूंकि यह पेपर साफतौर पर गणित के विद्यार्थियों के पक्ष में था, इसलिए इस पेपर ने शुरू के चार सालों तक आर्ट्स एवं गैर हिन्‍दीभाषी परीक्षार्थियों को सिविल सेवा परीक्षा के दौड़ की शुरूआत में ही बाहर रखा. इसको लेकर जब युवाओं ने आंदोलन किए, संसद में सवाल उठाए गए, तब संघ लोक सेवा आयोग को दो महत्‍वपूर्ण परिवर्तन करने के लिए बाध्‍य होना पड़ा था. पहला तो यह कि सी-सेट के अन्‍तर्गत पूछे गये कुल 80 प्रश्‍नों में से 8-10, जो अंग्रेजी भाषा के बोध से जुड़े प्रश्‍न होते थे, उन्‍हें खत्‍म किया गया.

साथ ही इस पेपर को क्‍वालिफाईंग पेपर बना दिया गया. यानी कि इस पेपर में न्‍यूनतम 33 प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य है. लेकिन अच्‍छी बात यह है कि इसके प्राप्‍तांक मेरिट लिस्‍ट में नहीं जुड़ते हैं. आर्ट्स एवं गैर अंग्रेजी भाषी परीक्षार्थियों के लिए यह बहुत ही राहत पहुँचाने वाली बात थी, जो आज तक जारी है.

यूपीएससी के द्वारा जारी आकड़े यह बताते हैं कि 2011 से 2015 के बीच सी-सेट के कारण हिन्‍दी एवं संविधान सम्‍मत अन्‍य भाषा के विद्यार्थियों को बहुत ही ज्‍यादा नुकसान उठाना पड़ा था. हालांकि बाद में 2015 के बाद इसके प्रतिशत में कुछ सुधार तो जरूर हुआ है, लेकिन इसे आटे में नमक से अधिक नहीं कहा जा सकता. इसलिए लगातार इस बात की मांग अभी तक बनी हुई है कि सी-सेट के इस पेपर को ही समाप्‍त कर दिया जाना चाहिए, ताकि सभी परीक्षार्थियों के लिए यह प्रतियोगिता समान स्‍तर की हो सके.
इस बारे में लगातार भ्रम के बादल छाये हुये थे. बहुत से परीक्षार्थी इस भरोसे में भी बैठे हुए थे कि शायद सी-सेट का यह पेपर समाप्‍त हो जायेगा. लेकिन पिछले सप्‍ताह सरकार ने राज्‍य सभा में दिये गये अपने बयान से यह स्‍पष्‍ट कर दिया है कि सी-सेट के इस पेपर को समाप्‍त करने का कोई भी विचार नहीं है.
यदि हम तटस्‍थ होकर सोचे तो व्‍यक्तिगत तौर पर एक पूर्व सिविल सर्वेन्‍ट होने के नाते मुझे लगता है कि कम से कम अब तो इस पेपर को समाप्‍त करने की मांग करने का कोई विशेष आधार शेष नहीं रह गया है. दरअसल, सिविल सर्वेन्‍ट बनने के लिए जिस तरह की स्पष्ट दृष्टि एवं, तर्क क्षमता आदि की आवश्‍यकता होती है, यह पेपर मस्तिष्‍क के इन्‍हीं दो महत्‍वपूर्ण गुणों का मूल्‍यांकन करता है. यहाँ सवाल न तो भाषा के ज्ञान का है और न ही विषय विशेष का. इसका सीधा संबंध मस्तिष्‍क की गुणवत्ता से है.

वैसे भी इसके अंतर्गत लगभग एक तिहाई प्रश्‍न केवल भाषा के बोध से जुड़े होते हैं, जो किसी भी प्रशासक के पास होना ही चाहिए. यदि कोई परीक्षार्थी केवल इस पर ही अच्‍छी पकड़ बना लेता है, तो शेष दो तिहाई प्रश्‍नों में से केवल कुछ प्रश्‍नों को हल करके वह बड़ी आसानी के साथ इस पेपर को क्‍वालिफाई कर सकता है.

जहाँ तक तर्क क्षमता और गणित के ज्ञान से जुड़े पूछे जाने वाले प्रश्‍नों का सवाल है, वे भी काफी मध्‍यम स्‍तर के ही होते हैं. हाँ, 80 में से 10-12 प्रश्‍न ऐसे जरूर होते हैं, जिनका स्‍तर सामान्य से बहुत ऊँचा होता है. मुझे लगता है कि एक स्‍नातक स्‍तर के परीक्षार्थी को, जो सिविल सर्वेन्‍ट बनने की महत्‍वाकांक्षा रखता है, उसमें इतनी योग्‍यता तो होनी ही चाहिए. यदि इससे पहले उसका इस तरह के विषयों से कोई संबंध नहीं भी रहा है, तो इसे तैयार कर लेना कोई असंभव काम नहीं है. हाँ, जैसा कि सामान्‍यतया होता है, तर्क और गणित के नाम से बचपन में ही जकड़ा हुआ मस्तिष्‍क निश्चित रूप से अभी भी ऐसे प्रश्‍नों को देखकर घबरायेगा ही. जबकि सच्‍चाई यह है कि वह यदि थोड़े भी धैर्य और साहस का परिचय दे, तो इसे क्‍वालिफाई कर पाना टेढ़ी खीर कतई नहीं है.

हाँ, एक बात जरूर है. वह यह कि आयोग यदि अपने अनुवाद की भाषा में न्‍याय बरत सके, तो यह विरोध करने वाले परीक्षार्थियों के न केवल विरोध को ही कम कर देगा बल्कि सही मायने में सभी के प्रति अपनी सामनतावादी दृष्टि का परिचय भी दे सकेगा. यह कोई मुश्किल काम नहीं है. आयोग को ऐसा करना ही चाहिए.

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