जनजातीय गौरव दिवसःकौन थे बिरसा मुंडा? जानिए आदिवासी उन्हें क्यों मानते हैं भगवान, मध्यप्रदेश में आज मनाया जा रहा है आदिवासी गौरव दिवस
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दरअसल आज यानी 15 नवंबर को महान आदिवासी नेता और स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की जयंती है. आदिवासी समुदाय के लोग बिरसा मुंडा को भगवान (Bhagwan Birsa Munda) का दर्जा देते हैं. तो आइए जानते हैं कि कौन हैं बिरसा मुंडा और आखिर क्यों उन्हें भगवान का दर्जा मिला हुआ है.
सोमवार यानि कि 15 नवंबर को मध्य प्रदेश सरकार जनजातीय गौरव दिवस (Janjatiya Gaurav Diwas) का आयोजन कर रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) भी इस कार्यक्रम में शामिल हुवे।
आखिर कौन थे बिरसा मुंडा ?
कौन थे बिरसा मुंडा (Birsa Munda)?
आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का जन्म 15 नवंबर को 1875 को झारखंड (Jharkhand) के खूंटी जिले में आदिवासी परिवार में हुआ था. आदिवासियों के हितों के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बिरसा मुंडा ने आदिवासियों में नई चेतना जगाने का भी काम किया था. उनके योगदान के चलते ही देश की संसद के संग्रहालय में भी उनकी तस्वीर है. जनजातीय समुदाय में यह सम्मान अभी तक बिरसा मुंडा को ही हासिल हुआ है.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिरसा मुंडा के परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया था और बिरसा मुंडा की शुरुआती पढ़ाई भी मिशनरी स्कूल में हुई थी. रिपोर्ट के अनुसार, ईसाई मिशनरी द्वारा जिस तरह से मुंडा समुदाय की पुरानी व्यवस्थाओं की आलोचना की जाती थी, उससे वह काफी नाराज थे और इसके चलते वह वापस आदिवासी तौर तरीकों की तरफ लौट आए.
उस दौर में ब्रिटिश सरकार की शोषण और दमन की नीति चरम पर थी. ब्रिटिश व्यवस्था के तहत जमींदार, जागीरदार, साहूकार, महाजन आदि लोग आदिवासियों को शोषण करते थे. आदिवासियों की भूमि व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो रही थी. ऐसे में बिरसा मुंडा (Birsa Munda) ने आदिवासियों को जाग्रत किया. साल 1894 में बिरसा मुंडा के जीवन में अहम मोड़ साबित हुआ, जब वह आदिवासियों की जमीन और अधिकारों के लिए चलाए जा रहे सरदार आंदोलन में शामिल हुए. साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया.
बिरसा मुंडा(Birsa Munda) का जन्म 1875 में लिहतु (Village: lihatu), जो रांची में पड़ता है, में हुआ था. साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल(Chaibasa at Gossner Evangelical Lutheran Mission school) में पढने आए. सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था.
बचपन में मुंडा(Birsa Munda) एक बेहद चंचल बालक थे. अंग्रेजों के बीच रहते हुए वह बड़े हुए. बचपन का अधिकतर समय उन्होंने अखाड़े में बिताया. हालांकि गरीबी की वजह से उन्हें रोजगार के लिए समय-समय पर अपना घर बदलना पड़ा. इसी भूख की दौड़ ने ही उन्हें स्कूल की राह दिखाई और उन्हें चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल (Chaibasa at Gossner Evangelical Lutheran Mission school) में पढ़ने का मौका मिला.
Birsa MundaBirsa Munda and his movement
चाईबासा में बिताए चार सालों ने बिरसा मुंडा(Birsa Munda) के जीवन पर गहरा असर डाला. 1895 तक बिरसा मुंडा एक सफल नेता के रुप में उभरने लगे जो लोगों में जागरुकता फैलाना चाहते थे. 1894 में आए अकाल के दौरान बिरसा मुंडा ने अपने मुंडा समुदाय और अन्य लोगों के लिए अंग्रेजों से लगान माफी की मांग के लिए आंदोलन किया.
1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी. लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला. उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे. उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं(Mundas) में संगठित होने की चेतना जागी.1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं. जनवरी 1900 में जहाँ बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी. अंत में स्वयं बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए.
बिरसा ने अपनी अंतिम सांसें 9 जून, 1900 को रांची कारागर में ली. आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा भगवान की तरह पूजे जाते हैं.
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतभूमि पर ऐसे कई नायक पैदा हुए जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से लिखवाया. एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती बस दम उस आवाज को उठाने वाले में होना चाहिए और इसकी जीती जागती मिसाल थे बिरसा मुंडा. बिरसा मुंडा ने बिहार और झारखंड के विकास और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम रोल निभाया.
अपने कार्यों और आंदोलन की वजह से बिहार और झारखंड में लोग बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजते हैं. बिरसा मुण्डा(Birsa Munda) ने मुण्डा विद्रोह पारम्परिक भू-व्यवस्था के जमींदारी व्यवस्था में बदलने के कारण किया. बिरसा मुण्डा ने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया के तहत सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया. उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एकेश्वरवाद का उपदेश दिया. उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान न देने का आदेश दिया था.
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