यहां आपको रस की उत्पत्ति , अर्थ , भेद , परिभाषा आदि की पूरी संपूर्ण व्याख्यात्मक जानकारी दी जा रही है। जो विद्यालय तथा कॉलेज स्तर के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है।
रस काव्य का मूल आधार ‘ प्राणतत्व ‘ अथवा ‘ आत्मा ‘ है रस का संबंध ‘ सृ ‘ धातु से माना गया है। जिसका अर्थ है जो बहता है , अर्थात जो भाव रूप में हृदय में बहता है उसे को रस कहते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार रस शब्द ‘ रस् ‘ धातु और ‘ अच् ‘ प्रत्यय के योग से बना है।
जिसका अर्थ है – जो वहे अथवा जो आश्वादित किया जा सकता है।
रस की सम्पूर्ण जानकारी
ध्यानपूर्वक इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें –
रस की परिभाषा ?
इसका उत्तर रसवादी आचार्यों ने अपनी अपनी प्रतिभा के अनुरूप दिया है। रस शब्द अनेक संदर्भों में प्रयुक्त होता है तथा प्रत्येक संदर्व में इसका अर्थ अलग – अलग होता है।
उदाहरण के लिए
पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में तो , आयुर्वेद में शस्त्र आदि धातु के अर्थ में , भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है।
काव्य पढ़ने – सुनने अथवा देखने से श्रोता पाठक या दर्शक एक ऐसी भवभूति पर पहुंच जाते हैं जहां चारों तरफ केवल शुद्ध आनंदमई चेतना का ही साम्राज्य रहता है।
इस भावभूमि को प्राप्त कर लेने की अवस्था को ही रस कहा जाता है।
अतः रस मूलतः आलोकिक स्थिति है, यह केवल काव्य की आत्मा ही नहीं बल्कि यह काव्य का जीवन भी है इसकी अनुभूति से सहृदय पाठक का हृदय आनंद से परिपूर्ण हो जाता है।
यह भाव जागृत करने के लिए उनके अनुभव या सशक्त माध्यम माना जाता है।
आचार्य भरतमुनि ने सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र रचना के अंतर्गत रस का सैद्धांतिक विश्लेषण करते हुए रस निष्पत्ति पर अपने विचार प्रस्तुत किए
रस के सभी अंगों की सम्पूर्ण जानकारी
रस निष्पत्ति अर्थात विभाव अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है , किंतु साथ ही वे स्पष्ट करते हैं कि स्थाई भाव ही विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से स्वरूप को ग्रहण करते हैं।
इस प्रकार रस की अवधारणा को पूर्णता प्रदान करने में उनके चार अंगों स्थाई भाव , विभाव , अनुभाव और संचारी भाव का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
१. स्थाई भाव
स्थाई भाव रस का पहला एवं सर्वप्रमुख अंग है। भाव शब्द की उत्पत्ति ‘ भ् ‘ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है संपन्न होना या विद्यमान होना।
अतः जो भाव मन में सदा अभिज्ञान ज्ञात रूप में विद्यमान रहता है उसे स्थाई या स्थिर भाव कहते हैं। जब स्थाई भाव का संयोग विभाव , अनुभाव और संचारी भावों से होता है तो वह रस रूप में व्यक्त हो जाते हैं।
सामान्यतः स्थाई भावों की संख्या अधिक हो सकती है किंतु
आचार्य भरतमुनि ने स्थाई भाव आठ ही माने हैं –
रति , हास्य , शोक , क्रोध , उत्साह , भय , जुगुप्सा और विस्मय।
वर्तमान समय में इसकी संख्या 9 कर दी गई है तथा निर्वेद नामक स्थाई भाव की परिकल्पना की गई है। आगे चलकर माधुर्य चित्रण के कारण ‘ वात्सल्य ‘ नामक स्थाई भाव की भी परिकल्पना की गई है। इस प्रकार रस के अंतर्गत 10 स्थाई भाव का मूल रूप में विश्लेषण किया जाता है इसी आधार पर 10 रसों का उल्लेख किया जाता है।
२. विभाव
रस का दूसरा अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण अंग है। भावों का विभाव करने वाले अथवा उन्हें आस्वाद योग्य बनाने वाले कारण विभाव कहलाते हैं। विभाव कारण हेतु निर्मित आदि से सभी पर्यायवाची शब्द हैं।
विभाव का मूल कार्य सामाजिक हृदय में विद्यमान भावों की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है।
विभाव के अंग – १ आलंबन विभाव और २ उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव
आलंबन का अर्थ है आधार या आश्रय अर्थात जिसका अवलंब का आधार लेकर स्थाई भावों की जागृति होती है उन्हें आलंबन कहते हैं। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि जो सोए हुए मनोभावों को जागृत करते हैं वह आलंबन विभाव कहलाते हैं।
जैसे
श्रृंगार रस के अंतर्गत नायक-नायिका आलंबन होंगे , अथवा वीर रस के अंतर्गत युद्ध के समय में भाट एवं चरणों के गीत चुनकर शत्रु को देखकर योद्धा के मन में उत्साह भाव जागृत होगा।
इसी प्रकार आलंबन के चेष्टाएं उद्दीपन विभाव कहलाती है जिसके अंतर्गत देशकाल और वातावरण को भी सम्मिलित किया जाता है।
उद्दीपन विभाव
उद्दीपन का अर्थ है उद्दीप्त करना भड़काना या बढ़ावा देना जो जागृत भाव को उद्दीप्त करें वह उद्दीपन विभाव कहलाते हैं।
उदाहरण के लिए
श्रृंगार रस के अंतर्गत – चांदनी रात , प्राकृतिक सुषमा , विहार , सरोवर आदि तथा
वीररस – के अंतर्गत शत्रु की सेना , रणभूमि , शत्रु की ललकार ,युद्ध वाद्य आदि उद्दीपन विभाव होंगे।
३. अनुभाव
रस योजना का तीसरा महत्वपूर्ण अंग है। आलंबन और उद्दीपन के कारण जो कार्य होता है उसे अनुभव कहते हैं। शास्त्र के अनुसार आश्रय के मनोगत भावों को व्यक्त करने वाली शारीरिक चेष्टाएं अनुभव कहलाती है।
भावों के पश्चात उत्पन्न होने के कारण इन्हें अनुभव कहा जाता है।
उदाहरण के लिए
श्रृंगार रस के अंतर्गत नायिका के कटाक्ष , वेशभूषा या कामउद्दीपन अंग संचालन आदि तथा वीर रस के अंतर्गत – नाक का फैल जाना , भौंह टेढ़ी हो जाना , शरीर में कंपन आदि अनुभव कहे गए हैं।
अनुभवों की संख्या 4 कही गई है – सात्विक , कायिक , मानसिक और आहार्य।
कवि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से इन सभी अनुभव का यथास्थान प्रयोग करता चलता है।
सात्विक वह अनुभव है जो स्थिति के अनुरूप स्वयं ही उत्पन्न हो जाते हैं
इनकी संख्या 8 मानी गई है – स्तंभ , स्वेद , रोमांच , स्वरभंग , कंपन , विवरण , अश्रु , प्रलय
परिस्थिति के अनुरुप उत्पन्न शारीरिक चेष्टाओं का एक अनुभव कहलाती है।
जैसे
क्रोध में कटु वचन कहना , पुलकित होना , आंखें झुकाना आदि मन या हृदय की वृत्ति से उत्पन्न हर्ष विषाद आदि का जन्म मानसिक अनुभव कहलाता है।
४. संचारी भाव
रस के अंतिम महत्वपूर्ण अंग संचारी भाव को माना गया है।
आचार्य भरतमुनि ने रस सूत्र व्यभिचारी नाम से जिसका प्रयोग किया है वह कालांतर में संचारी नाम से जाना जाता है।
मानव रक्त संचरण करने वाले भाव ही संचारी भाव कहलाते हैं यह तत्काल बनते हैं एवं मिटते हैं
जैसे पानी में बनने वाले बुलबुले क्षणिक होने पर भी आकर्षक एवं स्थिति परिचायक होती हैं , वैसे ही इनके भी स्थिति को समझना चाहिए सामान्य शब्दों में स्थाई भाव के जागृत एवं उद्दीपन होने पर जो भाव तरंगों की भांति अथवा जल के बुलबुलों की भांति उड़ते हैं और विलीन हो जाते हैं तथा स्थाई भाव को रस की अवस्था तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होते हैं उन्हीं को संचारी भाव कहते हैं।
संचारी भावों की संख्या 33 मानी गई है
निर्वेद , स्तब्ध , गिलानी , शंका या भ्रम , आलस्य , दैन्य , चिंता , स्वप्न , उन्माद , बीड़ा , सफलता , हर्ष , आवेद , जड़ता , गर्व , विषाद , निद्रा , स्वप्न , उन्माद , त्रास , धृति , समर्थ , उग्रता , व्याधि , मरण , वितर्क आदि।
वास्तव में काव्य को आस्वाद योग्य रस ही बनाता है। इस के बिना काव्य निराधार एवं प्राणहीन है।
अतः रस की जानकारी रखते हुए रसयुक्त काव्य पढ़ना साहित्य शिक्षण का मूल धर्म है अतः सब होकर रसयुक्त की चर्चा करते हुए उदाहरण सहित रूप को जाने – पररखेंगे। आचार्य भरतमुनि का मानना है कि अनेक द्रव्यों से मिलाकर तैयार किया गया प्रमाणक द्रव्य नहीं खट्टा होता है ना मीठा और ना ही तीखा।
बल्की इन सब से अलग होता है ठीक उसी प्रकार विविध भाव से युक्त रस का स्वाद मिलाजुला और आनंद दायक होता है। अभिनवगुप्त रस को आलोकिक आनंदमई चेतना मानते हैं , जबकि आचार्य विश्वनाथ का मानना है कि रस अखंड और स्वयं प्रकाशित होने वाला भाव है जिसका आनंद ब्रह्मानंद के समान है।
रस के आनंद का आस्वाद करते समय भाव समाप्ति रहती है।
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