रात के पौने 8… 8 बजे का समय रहा होगा। एक लड़का एक जूतों की दुकान में आता है, गांव का रहने वाला था, पर तेज़ था। उसका बोलने का लहज़ा गांव वालों की तरह का था, परन्तु बहुत ठहरा हुआ लग रहा था। उम्र लगभग 22 वर्ष का रहा होगा ।
दुकानदार की पहली नज़र उसके पैरों पर ही जाती है। उसके पैरों में लेदर के शूज थे, सही से पाॅलिश किये हुये। दुकानदार — “क्या सेवा करूं ?” लड़का — “मेरी माँ के लिये चप्पल चाहिये, किंतु टिकाऊ होनी चाहिये !” दुकानदार — “वे आई हैं क्या ? उनके पैर का नाप ?” लड़के ने अपना बटुआ बाहर निकाला, चार बार फोल्ड किया हुआ एक कागज़ जिस पर पेन से आऊटलाईन बनाई हुई थी दोनों पैर की ! दुकानदार — “अरे बेटा! मुझे तो नाप के लिये नम्बर चाहिये था ?” वह लड़का ऐसा बोला… मानो कोई बाँध फूट गया हो — “क्या नाप बताऊ साहब ? मेरी माँ की ज़िन्दगी बीत गई, पैरों में कभी चप्पल नहीं पहनी। माँ मेरी मजदूर है, काँटे झाड़ी में भी जानवरों जैसे मेहनत कर-करके मुझे पढ़ाया, पढ़ कर, अब नौकरी लगी। आज़ पहली तनख़्वाह मिली है। दिवाली पर घर जा रहा हूं, तो सोचा माँ के लिए क्या ले जाऊँ ? तो मन में आया कि अपनी पहली तनख़्वाह से माँ के लिये चप्पल लेकर आऊँ !” दुकानदार ने अच्छी टिकाऊ चप्पल दिखाई, जिसकी आठ सौ रुपये कीमत थी। “चलेगी क्या ?” आगन्तुक लड़का उस कीमत के लिये तैयार था । दुकानदार ने सहज ही पूछ लिया — “बेटा !, कितनी तनख़्वाह है तेरी ?” “अभी तो बारह हजार, रहना-खाना मिलाकर सात-आठ हजार खर्च हो जाएंगे है यहाँ, और तीन हजार माँ के लिये !.” “अरे !, फिर आठ सौ रूपये… कहीं ज्यादा तो नहीं…।” तो बात को बीच में ही काटते हुए लड़का बोला — “नहीं, कुछ नहीं होता !” दुकानदार ने चप्पल बाॅक्स पैक कर दिया। लड़के ने पैसे दिये और ख़ुशी-ख़ुशी दुकान से बाहर निकला । चप्पल जैसी चीज की, कोई किसी को इतनी महंगी भेंट नहीं दे सकता… पर दुकानदार ने उसे कहा — “थोड़ा रुको !” साथ ही दुकानदार ने एक और बाॅक्स उस लड़के के हाथ में दिया — “यह चप्पल माँ को, तेरे इस भाई की ओर से गिफ्ट । माँ से कहना पहली ख़राब हो जायें तो दूसरी पहन लेना, नँगे पैर नहीं घूमना और इसे लेने से मना मत करना !”
दुकानदार की ओर देखते हुए उसकी दोनों की आँखें भर आईं !
दुकानदार ने पूछा —
“क्या नाम है तेरी माँ का ?”
“लक्ष्मी।” उसने उत्तर दिया।
दुकानदार ने एकदम से दूसरी मांग करते हुए कहा–
“उन्हें मेरा प्रणाम कहना, और क्या मुझे एक चीज़ दोगे ?”
“बोलिये।”
“वह पेपर, जिस पर तुमने पैरों की आऊटलाईन बनाई थी, वही पेपर मुझे चाहिये !”
वह कागज़, दुकानदार के हाथ में देकर वह लड़का ख़ुशी-ख़ुशी चला गया !
वह फोल्ड वाला कागज़ लेकर दुकानदार ने अपनी दुकान के पूजा घर में रख़ा,
दुकान के पूजाघर में कागज़ को रखते हुये दुकानदार के बच्चों ने देख लिया था और उन्होंने पूछ लिया कि — “ये क्या है पापा ?”
दुकानदार ने लम्बी साँस लेकर अपने बच्चों से बोला —
“लक्ष्मीजी के पग लिये हैं बेटा !!
एक सच्चे भक्त ने उसे बनाया है, इससे धंधे में बरकत आती है !”
बच्चों ने, दुकानदार ने और सभी ने मन से उन पैरों को और उसके पूजने वाले बेटे को प्रणाम किया।
मां तो इस संसार में साक्षात परमात्मा है !
बस हमारे अन्दर मॉ के लिए श्रद्धा और समर्पण हेना चाहिए।